Saturday, May 30, 2020

Remembering Lyricist Yogesh

In January 2013, Sangeet Ke Sitare, a music discussion group on Facebook, had done a 2-day episode on lyricist Yogesh as part of their Living Legends series. As the news of his passing came in yesterday, I was reminded of a telephonic interview conducted by Archana Gupta, followed by a write-up on his life and work in Hindi and English.


Note: Do keep in mind the the write-ups below were written in January 2013, so some information may appear outdated.

योगेश - सरलता की परिभाषा

अर्चना गुप्ता (जनवरी २०१३)


सर्वप्रथम, उन सबसे क्षमायाचना जिन्हें आज कुछ कष्ट होगा पढ़ने में परन्तु योगेशजी के विषय में हिंदी के अतिरिक्त किसी और भाषा का उपयोग अत्यधिक अनुपयुक्त लगा। उन सबके लिए जो हिंदी या देवनागरी नहीं पढ़ सकते, अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध है |

योगेशजी के विषय में इतनी जानकारी आसानी से उपलब्ध है कि मैं मूल तथ्य बहुत ही संक्षिप्त रूप से आपके सामने रखूँगी।

योगेशजी मूलत: लखनऊ के निवासी थे। इनके पिताजी श्री थान सिंह गौड़ इंजिनीयर थे। उनके देहांत के पश्चात रोज़गार की तलाश में ये मुम्बई आये अपने बचपन के एक मित्र श्री सत्यप्रकाश के साथ। उस समय इनकी आयु मात्र १७ वर्ष थी। काव्य के प्रति इनकी रुचि बचपन से थी परन्तु उस क्षेत्र में कार्यरत होने का कोई विचार नहीं था| ये अपने चचेरे भाई, श्री बजेन्द्र गौड़ से मिले जो स्वयं एक लेखक थे व इंडस्ट्री में काफ़ी कुछ जमे हुए थे। उनके रूखे व्यवहार से इनका स्वाभिमान बहुत आहत हुआ और अपने मित्र के प्रोत्साहन पर इन्होंनें अपने बूते पर फ़िल्म जगत में अपना कुछ मकाम बनाने का निश्चय किया। इन्हें फ़िल्म-निर्माण के किसी भी क्षेत्र में न तो कोई प्रशिक्षण मिला था न कोई अनुभव था और न ही कोई विरासत थी। मुम्बई शहर में अपने लक्ष्य की तलाश में भटकते हुए अपने मनोभाव और विचारों को कविताओं के रूप में व्यक्त करने लगे। फिर इनकी भेंट श्री रॉबिन बैनर्जी से हुई जिनके साथ ने इन्हें सिखाया की फ़िल्मी गीतों के बोल पहले से निश्चित धुनों के अनुरूप लिखे जाते हैं। इन्होनें वही करना शुरू किया और रॉबिनजी की धुनों पर कुछ गीत लिख कर उन्हें दे दिए। तो ये कहना अनुचित न होगा कि गीतकार इन्हें समय और परिस्थितियों ने बना दिया पर अभी सफ़लता इनसे कुछ दूर थी।

लगभग एक वर्ष के संघर्ष के बाद इनके लिखे 6 गीत और रॉबिनजी की धुनें "सखी रॉबिन" (१९६२) नामक फिल्म में प्रयोग हुईं। इनमें से एक गीत "तुम जो आओ तो प्यार आ जाए" ने ख़ासी लोकप्रियता भी अर्जित की। अगले ७-८ वर्ष तक इन्होंने कुछ छोटे बजट की फिल्मों के लिए ख़ूबसूरत गीत लिखे जिन्हें फिल्मों के न चलते, बहुत अधिक सफ़लता नहीं प्राप्त हुई। इस दौर की ये फ़िल्में, "स्टंट फिल्म्स " ही थीं जैसे कि "जंगली राजा", "रॉकेट टार्ज़न" ('६३), "कृष्णावतार ", "मार्वल मैन ", "टार्ज़न एंड डेलिलाह" ('६४), "फ्लाइंग सर्कस", "ऍडवॅनचर्ज़ ऑफ़ रॉबिनहुड" ('६५), "हुस्न का ग़ुलाम", "रुस्तम कौन", "टार्ज़न की महबूबा" ('६६), "एक रात" ('६७), "लुटेरा और जादूगर" ('६८), "S.O.S जासूस ००७" ('६९)। इनमें से कई फ़िल्मों के संगीतकार श्री रॉबिन बैनर्जी थे। १९६७ में प्रदर्शित हुई फ़िल्म "एक रात" के गीत "सौ बार बनाकर मालिक ने सौ बार मिटाया होगा ..." ने भी काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त की परन्तु अभी सफलता और योगेशजी के बीच कुछ दूरियाँ बनी रहीं।

योगेशजी का भाग्य-परिवर्तन तब हुआ जब ये सुश्री सबिता बैनर्जी के माध्यम से सुप्रसिद्ध संगीतकार श्री सलिल चौधरी के संपर्क में आये। १९६८-६९ में योगेशजी के लिखे हुए एक-दो गीत सलिल दा के संगीत-निर्देशन में स्वरांकित तो किये गए परन्तु वो फ़िल्में पूरी नहीं हुईं। अंततः १९७० में सलिल दा ने योगेश जी को पहली बार एक बड़ी फिल्म में गीत लिखने का अवसर प्रदान किया, फ़िल्म थी "आनंद"! योगेशजी ने अपनी काव्य प्रतिभा का भरपूर परिचय देते हुए "ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय" और "कहीं दूर जब दिन ढल जाए"(*) , इन दो गीतों की रचना की। दोनों गीतों ने ख़ासी लोकप्रियता हासिल की और योगेशजी के गीतकार जीवन के सफ़लतम चरण का प्रारंभ हुआ व सलिलजी के संगीत-निर्देशन में नियमित रूप से गीत लिखने का सिलसिला भी शुरू हुआ जिसके चलते इस जोड़ी ने "आनन्द" ('७०), "अन्नदाता", "अनोखा दान" , "मेरे भैया" ('७२), "रजनीगंधा" ('७४), "छोटी सी बात" ('७५), "आनंदमहल", "मीनू" ('७७), "जीना यहाँ" ('७९), "चेम्मीन  लहरें", "नानी माँ", "रूम नं  २०३" ('८०), अग्नि परीक्षा ('), आदि फिल्मों के माध्यम से जनता को अत्यंत मधुर गीत दिए जिन्होंने अत्याधिक लोकप्रियता भी प्राप्त की।  में जारी हुई "आखिरी बदला", इस जोड़ी की अंतिम भेंट थी। यह कहना सर्वथा उचित है कि यह संगठन योगेशजी के गीतकार जीवन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। आज तक योगेशजी का नाम आते ही सबसे पहले इसी जोड़ी के रचे गीत याद आते हैं।

ये सत्तर का दशक वास्तव में गीतकार योगेशजी के लिए स्वर्णिम था। अन्य उल्लेखनीय संगीतकार जिनका सान्निध्य इन्हें इस दशक में प्राप्त हुआ थे, बर्मन पिता व पुत्र - श्री एस डी बर्मन व श्री आर डी बर्मन। बड़े बर्मन साहिब के साथ इन्होनें मात्र दो फ़िल्में की - "उस पार" ('७४) व "मिली" ('७५)। परन्तु दोनों के गीत अब तक श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में इतना घर किये हुए हैं कि अनायास ही ज़ुबान पर आ जाते हैं। छोटे बर्मन साहिब का साथ इन्होनें लगभग आठ फिल्मों में दिया जिनमें से "चला मुरारी हीरो बनने" ('७७), "हमारे-तुम्हारे", व "मंज़िल" ('७९) के गीत प्रमुख रूप से सफ़ल माने जाते हैं। सुश्री उषा खन्ना व श्री राजेश रौशन के साथ भी इन्होनें कईं अच्छे व सफ़ल गीतों की रचना इसी दशक में की। वैसे इन्होनें अन्य छोटे-बड़े संगीतकारों, जैसे सुरेश कुमार, सुरेन्द्र कोहली, विजय राघव राव, भप्पी लाहिरी, वसंत देसाई, भूपेन्द्र सोनी, मीना मंगेशकर, श्यामल मित्रा, जी. एस. कोहली, वनराज भाटिया, कल्याणजी-आनंदजी, आदि, के साथ भी काम किया।

गीतकार के रूप में ये  तक सक्रिय रहे हैं हालाँकि १९९८ – २००२ की अवधि में इनकी कोई फिल्म नहीं आयी। अपने कार्यकाल में इन्हें श्री हेमंत कुमार ("दो लड़के दोनों कड़के" '७८), श्री सी रामचंद्र ("तूफ़ानी टक्कर" '७८) व श्री मदन मोहन ("चालबाज़" '८०) की बनाई धुनों पर भी गीत लिखने का अवसर मिला। नए संगीतकारों में इन्होनें निखिल-विनय, अन्नू मालिक, आदेश श्रीवास्तव, दिलीप सेन-समीर सेन आदि के साथ भी काम किया। अब तक की इनकी आखिरी फिल्म "सुनो न" (२००९) के संगीत निर्देशक संजॉय चौधरी हैं जो कि सलिल दा के सुपुत्र हैं। चौधरी परिवार की ग़ैर-फ़िल्मी प्रस्तुति "जॅनरेशन्ज़" के लिए भी इन्होंनें गीत लिखे हैं।

श्री हृषिकेश मुख़र्जी व श्री बासु चैटर्जी, इन दो फ़िल्म निर्देशकों का योगेशजी की सफलता में ख़ासा योगदान रहा। जहाँ एक ओर हृषि दा के साथ इन्होंनें "आनन्द", "मिली", "रंग-बिरंगी" आदि जैसी सफ़ल फिल्मों के लिए गीत लिखे, वहीं दूसरी और बासु दा के साथ "रजनीगन्धा", "छोटी सी बात", "बातों बातों में", "प्रियतमा", "दिल्लगी", "शौक़ीन", "मंज़िल", आदि फिल्मों में भी अपनी सृजनात्मकता का परिचय दिया। यदि देखा जाए तो योगेशजी के अधिकाँश अविस्मर्णीय गीत इन्हीं दो निर्देशकों की फिल्मों के रहे हैं।

अब तक योगेशजी ने लगभग १५० फ़िल्मों में, तकरीबन ५०० गीत लिखे हैं। फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी गीतों के अलावा योगेशजी ने अनेक टी वी धारावाहिकों के शीर्षक गीतों व विज्ञापन फ़िल्मों की तुकान्तक कविताओं की रचना भी की है।

ये तो थीं मूल तथ्यों की बातें जिनके बिना कोई भी जीवन रूप-रेखा अधूरी रहती है। अब बढ़ते हैं योगेशजी की कला के कुछ पहलुओं पर बात-चीत करने जो आज के लेख के लिए सही मायनों में मुद्दे की बात हैं। इनका नाम सुनते ही कईं गीत ख़ुद-ब-ख़ुद ही ज़हन में घूमने लगते हैं! आख़िरकार हूँ तो उस पीढ़ी की जिसने इस महान गीतकार के स्वर्णिम वर्षों में अपना बचपन जिया है, अक्सर इनके गीतों को रेडियो पर सुना और दूरदर्शन (जी हाँ, तब बस वही था) पर देखा है, विशेषतः चित्रहार में। जब इनके बारे में लिखने का विचार किया तभी लगा, एक क्षण भर भी यदि आँखें बंद कर के सोचूँ के इनके गीतों में क्या विशिष्टता है तो यही विचार कौंधता है - सादगी और सरलता - भाषा की सरलता, अमूमन विचारों की सादगी और भावनात्मक रूप से अत्यंत जटिल विषयों को भी सरलता से बखानने की कला। और ये विशेषताएँ इनके एक नहीं अनेकों गीतों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

पहले भाषा की बात की जाए तो उर्दू-प्रधान युग में इस गीतकार ने सरल, शालीन व सुंदर हिन्दी में गीत लिखे। इनकी भाषा में क्लिष्टता नहीं थी परन्तु शुद्ध शब्दों का चयन अवश्य था व बहुत ही सुंदर व बोधगम्य उपमाओं का प्रयोग सहज भाव से किया गया था। "अनुरागी मन", "मन की सीमा रेखा", "मधुर गीत गाते धरती-गगन", "अवगुण और दुर्गुणों का देखा जाना", "बोझल साँसें", "घनी उलझन", "रात के गहरे सन्नाटे", "सपनों का दर्पण", "दिन सुहाना मौसम सलोना", "अलबेला गीत", "बंधन का सुख" और "साजन का अधिकार", योगेशजी की कुछ अत्यंत शालीन अभिव्यक्तियाँ हैं जिन्हें हम सभी सरलता से सही गानों के सन्दर्भ में पहचान सकते हैं। योगेशजी अपनी इस विशिष्ट शैली का सारा श्रेय सलिल दा के सान्निध्य को देते हैं। इनका कहना है कि सलिल दा स्वयं इतनी उच्च कोटि के कवि थे कि उनके साथ हल्की भाषा का प्रयोग असंभव था। और इन गीतों की सफ़लता के बाद तो योगेशजी से सभी इसी शैली में गीत-रचना की अपेक्षा करने लगे।

अब बात आती है विचारों की सादगी की और बहुत ही सीधे और साधारण विचारों को अत्यंत सुन्दर शब्दों में बाँधने की। इस सन्दर्भ में मुझे आनंद फिल्म का वो गीत सबसे पहले याद आ रहा है जिसके बारे में योगेशजी का बताना है कि वह लिखा तो गया था श्री बासु भट्टाचार्य जी की एक ऎसी फ़िल्म के लिए जो बीच ही में बंद हो गयी और गीत बिक गया श्री ऍल. बी. लछमन को। पर हृषि दा को वह गीत बहुत पसंद आया और राजेश खन्ना, सलिल दा और हृषिकेश मुख़र्जी साहिब ने बहुत मिन्नतें कर के वह गीत लछमन जी  से प्राप्त किया - जी हाँ, यहाँ, "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" की ही बात हो रही है। यदि देखा जाए तो इस गीत के भाव बहुत साधारण हैं - लगभग पूरे गीत में (एक अंतरे को छोड़कर), गायक/नायक सिर्फ़ इतना व्यक्त कर रहा है की वह किसी को बेहद याद कर रहा है। परन्तु इस सरल से भाव की सुंदर अभिव्यक्तियाँ हैं "मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए", "मचल के, प्यार से चल के छुए कोई मुझे पर नज़र न आए", और फिर एक खोये सपने की उपमा दे कर "ये मेरे सपने, यही तो हैं अपने मुझसे जुदा न होंगे इनके ये साये" - मूल भाव वही रहा पर शब्दों का ताना-बाना इतना सुंदर कि गीत बेहद मनमोहक बन गया। और बाक़ी बचे एक अंतरे में आनन्द की व्यथा के साथ साथ उसके अन्य पात्रों से भावनात्मक बंधन की गहराई का भी वर्णन हो गया।

"कहीं तो ये, दिल कभी, मिल नहीं पाते
कहीं से निकल आएँ, जनमों के नाते
घनी थी उलझन, बैरी अपना मन
अपना ही होके सहे दर्द पराये, दर्द पराये"

योगेशजी के अनुसार ये अंतरा उनके और उनके मित्र श्री सत्यप्रकाशजी के भावनात्मक सम्बन्ध का भी वर्णन करता है।

दूसरा गीत जो इसी याद करने के भाव से परिपूर्ण है परन्तु जिसकी भावाभिव्यक्ति कुछ भिन्न होते हुए भी किसी भी दृष्टिकोण से कम उत्कृष्ट नहीं है, फ़िल्म "छोटी सी बात" से है - जी हाँ, इशारा "न जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ" की ओर है। इस गीत में सीधे सीधे शब्दों में नायिका की मन:स्थिति का वर्णन है जहाँ उसे नायक से रोज़ मिलने की आदत है - सिर्फ़ आदत - दोनों में से किसी ने अब तक अपने प्रेमभाव को स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं किया है, विशेषतः नायिका ने। और एक दिन हमारे नायक साहिब अकस्मात ही, बिना कुछ कहे-सुने गायब हो जाते हैं। अब इस परिस्थिति में ये गीत नायिका के मनोभाव प्रकट करने के लिए एक पार्श्वगीत की तरह फ़िल्माया गया है। यहाँ योगेशजी के शब्दों का चयन कुछ इस तरह है - "जो अनजान पल ढल गए कल, आज वो रंग बदल बदल, मन को मचल मचल रहे हैं छल, न जाने क्यूँ वो अन्जान पल, सजे बिना मेरे नयनों में टूटे रे सपनों के महल" और फिर अगले अंतरे में "वही है डगर, वही है सफ़र, है नहीं पास मेरे मगर, अब मेरा हमसफ़र, इधर-उधर ढूँढे नज़र, वही है डगर, कहाँ गईं शामें मदभरी, वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर" । अब आप सोचिये "सजे बिना मेरे नयनों में टूटे रे सपनों के महल" - इससे अधिक प्रभावशाली शब्द हो सकते हैं क्या उस प्रेम को व्यक्त करने के लिए जिसका प्रथमाभास उसके अभाव के साथ ही हो?

प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति से एक और गीत याद आता है - फ़िल्म "मंज़िल" से - "रिम-झिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन" - भाव कुछ रत्यात्मकता में भी ओत-प्रोत हैं परन्तु शब्द अपनी शालीनता की सीमारेखा का कहीं उल्लंघन नहीं करते - बात भले ही "भीगे मौसम में लगी अगन" की हो या "भीगे आँचल" की, "दहके सावन" की हो या "बहके मौसम" की। सावन की एकाकी रातों में नींद न आने जैसे अतिसामान्य भाव की प्रस्तुति के लिए योगेशजी ने जिन पँक्तियों की रचना की, वे कुछ इस प्रकार हैं "जब घुंघरुओं सी बजती हैं बूंदे, अरमाँ हमारे पलके न मूंदे" । और अपने मित्र व सम्बन्धी समाज में एक नवप्रेम की भावना को व्यक्त न कर सकने की हिचकिचाहट कुछ इस तरह बखानी "महफ़िल में कैसे कह दें किसी से, दिल बंध रहा है किस अजनबी से" - क्या संभव है इनसे अधिक उपयुक्त या सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ? और संभवतः अब आप भी मानने लगे होंगे कि इस गीत में भाव उतने सरल नहीं हैं जितने सरल गीतकार की प्रस्तुति से प्रतीत होते हैं।

अब "मंज़िल" के इस गीत से शुरू हुए, योगेशजी की काव्यकला की तृतीय विशिष्टता - अर्थात भावनात्मक रूप से जटिल विषयों के सरल प्रस्तुतीकरण, के अन्वेषण को आगे बढ़ाते हैं। मेरा मानना है कि इस श्रेणी का सर्वोत्तम उदाहरण है फ़िल्म "रजनीगन्धा" का गीत "कई बार यूं भी देखा है..." । इस पार्श्वगीत का प्रयोग दो पुरुषों के प्रति अपने आकर्षण से उद्विग्न नायिका की मनःस्थिति दर्शाने के लिए किया गया है। यदि गीत के बोलों पर ध्यान दें तो नायिका के मन का द्वन्द्व सहज ही स्पष्ट हो जाता है। गीत के मुखड़े में ही गीतकार ने पात्र के मन और मस्तिष्क के अन्तर्विरोध का आभास करवा दिया है, इन शब्दों से - "ये जो मन की सीमारेखा है, मन तोड़ने लगता है", और इसी अपने ही मन से विरोधाभास की अगली कड़ियाँ हैं उसकी "अनजानी प्यास" और "अनजानी आस" जो मस्तिष्क की समझ की सीमाओं से बाहर प्रतीत होती हैं - मस्तिष्क शायद सामाजिक नियमों की हदों में मन के भावों का मूल्यांकन कर रहा है और उन्हें समझने में असमर्थ है। जहाँ पहले अंतरे में, बड़ी निपुणता से गीतकार ने फूलों का सांकेतिक रूप से प्रयोग करते हुए इस भ्रांतिग्रस्त नायिका के मनोभाव को प्रस्तुत किया है, ये कह कर "जीवन की राहों में जो खिले हैं फूल फूल मुस्कुराके, कौन सा फूल चुराके, रख लूँ मन में सजाके" वहीं दूसरे अंतरे में तो पूरी उलझन अत्यंत स्पष्टता से श्रोताओं के समक्ष रख दी है। शब्द कुछ यूँ चुने हैं "उलझन ये, जानूँ न सुलझाऊँ कैसे, कुछ समझ न पाऊँ, किसको मीत बनाऊँ, किसकी प्रीत भुलाऊँ" । केवल इस एक गीत के माध्यम से पूरे चलचित्र का केंद्र-विषय या अन्तर्भाग पूर्णतः सुस्पष्ट हो जाता है। और मेरे विचार में, यही इस गीतकार की काव्य-कला में निर्विवाद दक्षता का प्रमाण है।

भावनात्मकता के अतिरिक्त, दार्शनिकता एक और अनुपम वर्ग है जिसे योगेशजी ने सुविज्ञतापूर्वक व्यक्त किया है कुछ गीतों में जिनमें से सबसे पहले "ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय" याद आता है। यह गीत जीवन की क्षणभंगुरता, पल-पल बदलते स्वरूप और मृत्योपरांत अनिश्चितता का वर्णन करता है। शब्दों का चयन कुछ इस तरह का है - "ज़िंदगी ...कैसी है पहेली, हाए, कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये", "एक दिन सपनों का राही, चला जाए सपनों के आगे कहाँ"। और अंतिम अंतरा तो पूरा ही गहन सोच में डाल देता है - "जिन्होंनें सजाए यहाँ मेले, सुख-दुख संग-संग झेले, वही चुनकर ख़ामोशी, यूँ चले जाएँ अकेले कहाँ"। ऐसा कम ही होता है कि ये गीत सुनने के पश्चात आँखों में तनिक भी नमी न हो। अब इससे अधिक इनकी काव्य-कला की और क्या प्रशंसा होगी? इस गीत के विषय में योगेशजी का बताना है कि ये गीत इन्हें लगभग ज़बरदस्ती ही मिला उस गीत की एवज में जो इनसे ग़लती से अन्नदाता फ़िल्म के लिए ऎसी धुन पर लिखवा लिया गया था जो पहले से "आनन्द" फ़िल्म में प्रयोग हो चुकी थी। पहले इस गीत का प्रयोग शुरू में क्रेडिट्स के समय होना था परन्तु राजेश खन्नाजी को गीत बहुत भा गया और उनके आग्रह पर इसे फ़िल्माया गया। और भाग्य की विडम्बना देखिये की वो गीत जिसकी रचना ही नहीं होनी थी, गीतकार की पहचान बनाने में प्रमुख गीतों में गिना जाता है।

योगेशजी की ये विशिष्टताएँ जिन अन्य गीतों में उभर कर आती हैं, उनमें से उल्लेखनीय हैं "रजनीगन्धा फूल तुम्हारे ...", "आये तुम याद मुझे ...", "बड़ी सूनी सूनी है ...", "कोई रोको ना दीवाने को ...", "गुज़र जाए दिन ...", "कभी कुछ पल जीवन के ...", "हम और तुम थे साथी ...", "निस दिन निस दिन ...", "नैन हमारे, साँझ सखारे ...", "कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे ...", "ये जब से हुई है जिया की चोरी ...", इत्यादि

पिछले दिनों योगेशजी के कई चिर-परिचित गीतों को पूर्ण तन्मन्यता से सुना तो कुछ रोचक तथ्य सामने आए। मूलतः योगेशजी भावनात्मक काव्य के रचेयता हैं - इनके अधिकाँश गीत मानवीय भावनाओं से सम्बद्धित हैं विशेषकर प्रेमभाव से। स्वप्नों से भी इनका कुछ गहरा सम्बन्ध है - संभवतः इसलिए कि प्रेम व स्वप्नों और दिवास्वपनों का एक दूसरे से गठबंधन लगभग अविवादित ही माना जाता है। कारण कुछ भी हो, इनके अनेक गीतों में स्वप्न, सपने, ख्व़ाब का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए - "कहीं दूर जब दिन ढल जाए...", "ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय…", और "न जाने क्यूँ..." की बात तो पहले कर ही चुके, "आये तुम याद मुझे..." में "जिस पल नैनों में सपना तेरा आए", "हम और तुम थे साथी..." में "हमारे तुम्हारे सपने जो सच हुए थे, थामें हैं मेरा हाथ", "गुज़र जाए दिन..." में "ख़्वाब मेरे हो गये रंगीन", "कोई रोको ना दीवाने को...", में "उमर के सफ़र में जिसे जो यहाँ भाए, उसी के सपनों में ये मन रंग जाए", "मैंने कहा फूलों से ..." में "ओ मैंने कहा सपनों से सजो तो वो मुस्कुरा के सज गये", "मन करे याद वो दिन ..." में "तेरे संग देखे थे जो सपने हसीन"…, "मन चाहे मेहंदी रचा लूँ ..." में "मुझमें ऐसे तुम समाए मेरे सपने मुस्कुराए", "रिम-झिम गिरे सावन ..." में "कैसे देखे सपने नयन", "नैन हमारे साँझ सखारे, देखें लाखों सपने ...", "नी स, ग म प नी, स रे ग, आ आ रे मितवा ... " में "सपना देखें मेरे खोये खोये नैना, मितवा मेरे आ तू भी सीख ले सपने देखना", "रातों के साए घने..." में "लगता है होंगे नहीं सपने ये पूरे मेरे", और "रजनीगन्धा फूल तुम्हारे..." में "हर पल मेरी इन आँखों में बस रहते हैं सपने उनके" इत्यादि। यहाँ तक के इनकी ग़ैर-फ़िल्मी कृतियों में भी सपनों का उल्लेख मिलता है, जैसे "कुछ ऐसे भी पल होते हैं ..." में "चुभने लगता है साँसों में बिखरे सपनों का हर दर्पण"। वैसे "मन" और "नयन" शब्द का प्रयोग भी इन्होंनें कुछ कम नहीं किया। इनके कार्यकाल के प्रारम्भिक ६-७ वर्षों में लिखे हुए गीतों में, उर्दू शब्दों का प्रयोग भी दिखता है। अंतिम दशक में गीतों के बोलों और भाव अभिव्यक्ति का स्तर हल्का पड़ गया है परन्तु ये शायद समय की माँग कही जायेगी - सामान्यतः गीतों के बोलों से श्रोताओं का ध्यान लगभग ख़त्म ही हो गया है इस काल में। फिर भी इनकी भाषा का साथ शालीनता ने नहीं छोड़ा। वैसे देखा जाए तो योगेशजी को "बहु-उपयोगी" गीतकार नहीं कहा जा सकता परन्तु अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ वे अवश्य रहे हैं। बदलते समय और परिवेश के साथ, दर्शकों की रूचि भी बदल गयी और इस महान गीतकार की लोकप्रियता में कमी आ गई परन्तु सत्तर के दशक में इनके लिखे गीतों को अब भी अत्याधिक सराहना मिलती है।

आजकल  ३-४ नई छोटे बजट की फ़िल्में बन रही हैं जो योगेशजी के गीतों से सजेंगी| इनमें से एक "ये दीवानगी" लगभग तैयार है और बाकियों पर काम चल रहा है।

पारिवारिक क्षेत्र में, योगेशजी दो पुत्रियों और एक पुत्र के पिता हैं। इनके सभी बच्चे विवाहित हैं और आजकल ये अपने पुत्र व पुत्रवधू के साथ मुम्बई में रहते हैं। जब इनसे पहली बार बात हुई त़ो ये अपने पोते/पोती के जन्म की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे। दो-तीन दिन बाद ही पता चला कि ये दादा बन गए हैं और इनके यहाँ एक नन्हीं परी का आगमन हुआ है। हम सबकी ओर से इन्हें बहुत-बहुत बधाई।

अंत में मैं केवल ईश्वर से योगेशजी के लिए दीर्घायु व आरोग्य की प्रार्थना करूँगी और यही चाहूँगी कि वे फ़िल्मी ही नहीं अपितु ग़ैर-फ़िल्मी गीत व कविताएँ भी अवश्य लिखते रहें|

ग्रन्थसूची संदर्भिका
  1. योगेशजी से जनवरी 2013 में हुई बात-चीत
  2. हिन्दी फ़िल्मों के गीतकार - श्री अनिल भार्गव

आभार

  1. श्री अपूर्व मोघे - योगेशजी के गीतों की पूरी सूची के लिए जिसके अभाव में मुझे घंटों बहुत से स्रोतों और सूत्रों पर खोजबीन करनी पड़ती
  2. श्री अरुण मुद्गल - योगेशजी से सम्पर्क करवाने के लिए।
  3. श्री आदित्य पन्त - इस लेख व इसके अनुवाद की समीक्षा व पुनर्विलोकन के लिए
  4. श्री श्याम उत्तरवार - योगेशजी पर लिखने का अवसर प्रदान करने के लिए



Yogesh – Simplicity Defined

By Archana Gupta (January 2013)


There is so much information, so easily available about our Living Legend of the month, Yogeshji, that I will try to present the basic background information as succinctly as possible without compromising the quality of the end result…


Yogeshji originally hailed from Lucknow.  His father, Mr. Than Singh Gaud, was an engineer.   After his father’s demise, a 17 year old Yogeshji, an only son out of three  children,  moved to Bombay in 1961 in search of  employment along with his childhood friend, Mr. Satyaprakash.  He had a deep-rooted interest in poetry writing but had not thought of making it his vocation at all.  His cousin, Mr. Brajendra Gaud, was already in Bombay and was fairly well established as a writer in the industry.   Yogeshji was not very well-received by his cousin and his pride was hurt.  On the insistence of his friend, he decided to establish himself independently in film line.  He had no background, training, experience or even any exposure at all in any discipline of film-making.  He started expressing his thoughts and feelings in poems while looking to fulfill his goal of establishing himself in films.  He was then introduced to Mr. Robin Banerjee working with whom he learnt that the tune for a film song is composed first and then the words are written to fit the same meter.  So he wrote a few songs based on Robin Banerjee’s tunes and gave them to Mr. Banerjee.   It is thus not incorrect to state that time and circumstances turned Yogeshji into a lyricist but his ultimate goal of success in films was far from realization at this point.

In 1962,  six of his songs written on Robin Banerjee’s tunes were used for a movie called “Sakhi Robin”.  Of these, one song “Tum jo aao to pyaar aa jaaye” became fairly popular.  For next 7-8 years, he wrote some lovely songs for small budget stunt films where neither the films nor soundtracks gained any traction.  These B & C grade movies included “Junglee Raja”, “Rocket Tarzen” (’63), “Krishnaavtaar”, “Marvel Man”, “Tarzen and Delilah” (’64), “Adventures of Robinhood” (’65), “Husn Ka Ghulam”, “Rustom Kaun”, “Spy in Goa”, “Tarzen Ki Mahbooba” (’66), “Ek Raat” (’67), “Lutera aur Jaadugar” (’68), and “S.O.S. Jasoos 007” (’69).  Robin Banerjee was the Music Director for many of these ventures.  The 1967 release “Ek Raat” also featured a song sung by Sh. Mohammed Rafi sahib, “Sau baar banaa kar maalik ne sau baar mitaaya hoge” that gained some popularity but on the whole, success still eluded him.

Yogeshji’s fortune took a distinct turn for the better when he came in contact with the renowned Music Director, Sh. Salil Chowdhury, via Ms. Sabita Banerjee (who later became Mrs. Salil Chowdhury).   In 1968-69, Salil Da recoded a couple of songs penned by Yogeshji but as the misfortune would have it, the films got canned on some pre-text or the other.  Finally, in 1970, Salil Da gave Yogeshji a chance to write songs for a big banner film – “Anand”.  Yogeshji also lived up to the expectations and demonstrated his abilities as a lyricist by writing meaningful and beautiful sounding lyrics of two immortal numbers -  “Zindagi kaisi hai paheli haay...” and “Kahin door jab din dhal jaaye…” (*).  Both the songs became extremely popular and the rest, as they say, is history.  “Anand” marked the beginning of the most successful phase of Yogeshji’s career as a lyricist.  It also was the start of the most significant and fruitful partnership of this lyricist’s career that spanned well over a decade and produced lovely, melodious and popular songs for films like “Anand “(’70),  “Annadaata”, “Anokha Daan”, “Mere Bhaiya” (’72), “Rajnigandha” (’74),  “Chhoti Si Baat” (’75), “Anandmahal”, “Minoo” (’77),  “Jeena Yahan” (’79),  "Chemmeen Lehren", "Naani Maa", "Room No. 203" ('80), “Agni Pareeksha” (’81) et.  The last film for this successful partnership was “Akhiri Badla” in 1988.  The fact that as soon as one thinks of Yogeshji, the first few songs that come to mind are all by this partnership, is a testimony to their success and the mark that they made together.

The seventies indeed proved to be a golden decade for Yogeshji.  The other most noteworthy music directors that collaborated a lot with Yogeshji during this period were the Burmans -  both father and son.  He did mere two films with SDB – “Mili” and “Us Paar”, but the listeners still remember  the songs very readily.  With RD Burman, his association was about eight movies long amongst which soundtracks of “Chala Murari Hero Banane” (’77), “Hamare-Tumhare”, “Manzil” (’79)  are considered more successful.   In this decade, he also produced some really beautiful songs in partnership with Usha Khanna and Rajesh Roshan.  Some of the other music-directors that he worked with are Suresh Kumar, Surinder Kohli, Vijay Raghav Rao, Bhappi Lahiri, Vasant Desai, Bhupinder Soni, Meena Mangeshkar, Shyamal Mitra, Vanraj Bhatia, Kalyanji-Anandji, etc.

As a lyricist, Yogeshji has remained active till as late as 2009, though he had a quiet period from 1998 – 2002 with no releases at all during that time.  During his illustrious career, he also got the opportunity to write words to the tunes of the greats like Hemant Da (“Do Ladke, donon kadke”  ’78),  Mr. C. Ramachandra (“Toofani Takkar”  ’78) and Mr. Madan Mohan (“Chaalbaaz”, ’80).  Amongst the newer Music directors, he has worked with Nikhil-Vinay, Annu Malik, Aadesh Srivaastav, and Dilip Sen- Sameer Sen, etc.   Sanjoy Chowdhury, son of  Sh. Salil Chowdhury, is the MD of  “Suno Na”, Yogeshji’s last film, to date, as a lyricist.  Chowdhury family’s non-film presentation, “Generations”, also features songs by Yogeshji.

Two film-directors who have undoubtedly contributed non-trivially to Yogeshji’s success are Mr.  Hrishikesh Mukherjee and Mr. Basu Chatterjee.  While he penned soul-stirring numbers for Hrishi Da in outstanding films like  “Anand”, “Mili”, Rang-Birangi” etc, his output with Basu Da is no less impressive and includes euphonious songs from movies like “Rajnigandha”, “Chhoti si Baat", “Baaton Baaton mein", "Priyatamaa", "Dillagi", "Shauqeen", "Manzil", etc.  Infact, for most part, Yogeshji’s most remarkable, memorable and inspired creations belong to the films of these two directors. So it is completely fair to state that these two men brought out the best in Yogeshji.

So far, Yogeshji has written about 350 songs for about 100 odd films.  Other than film and non-film songs, he is also credited with penning title songs for a variety of T.V. serials as well as jingles for Ad Films.

So far we have talked about basic facts and figures without which no profile or career sketch can be considered complete.  Lets now explore a little more about Yogeshji’s mastery over his craft and his unique lyric-writing style, which actually is the crux of this whole discussion.  As soon as I hear his name, a number of songs inevitably rush to my mind immediately.  Afterall, I have spent my formative childhood period during his golden era and have heard his creations endlessly on radio and Doordarshan (think Chitrahaar).  When I first thought about writing about Yogeshji, and spent a couple of moments reflecting on his writing style and its distinctiveness, a couple of thoughts instantaneously flashed through my mind.  His defining trait is Simplicity  - both in terms of language and for most part the thoughts as well.  Add to that, the ability to present perplexing subjects dealing with emotional predicaments in seemingly effortless and lucid fashion.  And these attributes are apparent in many of his songs.

Let us consider language first.   In an era dominated by Urdu words in lyrics, this lyricist chose to write songs in simple, chaste and beautiful Hindi.  His expressions were not difficult but the word selection did tend to favor more refined or pure words.  He used elegant, meaningful yet easily understandable imagery in his expressions with enviable spontaneity and eloquence.  “Anuraagi man”,  Man ki seemarekha", “Madhur geet gaate dharti-gagan", “avgun aur durgunon ka dekha jaana", “bojhal saansen", "ghanii uljhan", "raat ke gahre sannaate", "sapnon kaa darpan", "din suhaanaa, mausam salonaa", "albelaa geet", "bandhan ka sukh" and "Saajan ka adhikaar", are some Yogeshji’s very graceful expressions that are instantly recognizable and which most of us can readily associate with the correct songs that they are drawn from.  Here, it is appropriate to mention that Yogeshji gives credit for his very poetic lyric-writing style to his association with Salil Da.  According to him, Salil Da himself was such an accomplished poet that using lose lyrics/words for his compositions was an absolute No-no.   The words had to measure up to a certain standard.  Over time, these songs became so popular that this writing style became Yogeshji’s recognized trademark and became a general expectation from him.

Let us move on to the simplicity of thoughts now and the ability to present simple thoughts in beautiful, heart-warming terms.   In this context, the song that first comes to mind is one that was supposedly not even written for the movie that it finally appeared in.  It was actually written for a Basu Bhattacharya film that got canned.   It was bought by L.B. Lachhman but Hrishi Da liked it so much that Rajesh Khanna , Salil Da and Hrishikesh Mukherjee all repeatedly requested and convinced LB Lachhman to give that song up.  The song in questions was finally used in Anand – yes, the reference is to “Kahin door jab din dhal jaaye…”.  If we examine the words, the only sentiment expressed in the entire song (with the possible exception of one antaraa) by the hero/singer is that of missing someone.  The expressions used to convey this feeling take various forms like “Mere khayaalon ke aangan mein koi sapnon ke deep jalaaye”, “Machal ke, pyaar se chal ke  chhue koi mujhe par nazar na aaye", and then an imagery of a lost dream is used to say “Ye mere sapne, yahi to hain apne, mujhse judaa na honge inke ye saaye” -  the same basic thought but the elucidation is so exquisite that the song takes on almost sublime proportions.  The remaining antaraa is cleverly used to reinforce Anand’s plight as well as describe his emotional bond with other characters.

“Kahin to ye dil kabhi, mil nahin paate
Kahin se nikal aayen janmon ke naate
Ghani thi uljhan, bairii apnaa man
Apna hi ho ke sahe dard paraaye, dard paraaye”

Yogeshji states that he penned the above lines in honor of his relationship with his friend Sh. Satyaprakashji.

The second song that I would like to talk about today, also deals with the same emotion – that of missing someone.  Though its  style of articulation is different, it is no less beautiful or effective.  Yes, the song under question is “Na jaane kyun hota hai yun zindagi ke saath” from the movie “Chhoti si Baat”.   This song describes the heroine’s mental state in plain and straight words. Here, she is simply used to meeting the hero every day -  its just a habit since he started pursuing her and following her around predictably – neither of them has expressed their love to each other and the lady hasn’t even admitted it to herself before this juncture, AFAIR.  Now one day,  Mr. Hero quietly disappears.  At this point, this song is picturized as background song to illustrate our heroine’s exploration of her own psyche to figure out the cause of her restlessness and anxiety when he remains missing.  Other than the mukhda that plainly states the crux of the issue of missing someone you didn’t even think you will miss, the words chosen to bring her emotions to the fore are “Jo anjaan pal, dhal gaye kal, aaj vo rang badal badal, man ko machal machal rahe hain chhal, na jaane kyun vo anjaan pal, saje bina mere nayanon mein toote re sapnon ke mahal”.  And then in the next antara, she actually has decided what his place in her life is, rest is stating the obvious - “Vahii hai dagar, vahii hai safar, hai nahin paas mere magar, ab mera hamsafar, idhar-udhar dhoondhe nazar, vahi hai dagar, kahan gayiin shaamen madbhari, mere vo din gaye kidhar”.  I’ll leave you to decide if there could be more compelling words than “saje bina mere nayanon mein toote re sapnon ke mahal” to express a love whose first realization comes hand in hand with its supposed loss?

Talking of first expression of love reminds me of another song, this one from the movie “Manzil” – “Rimjhim gire saawan, sulag sulag jaaye man”.  This song also manages to convey a certain degree of sensuousness without the words ever becoming over-explicit or crossing any bounds of decent expression.  The poetic phrases employed to this effect are “Bheege mausam mein lagi agan” , “Bheega aanchal”, “Dahkaa saawan”, and “Bahkaa mausam” etc.  The oft expressed “inability to sleep on a lonely, rainy night” finds  Yogeshji whimsically delivering the lines “Jab ghunghruon si bajatii hain boonden, armaan hamaare palken na moonden”.  And the hesitation that one felt (yes in a different era – not in today’s times) in admitting this new-found love in front of family, friends and society in general is beautifully communicated via “Mahfil mein kaise kah den kisee se, dil bandh rahaa hai kis ajnabii se” – is it possible to find more apt or more ingenious words to convey the same?   Hopefully, it is obvious that this song is not as simple in meaning and intent as it may appear on casual hearing and the words are actually very well chosen.

Lets explore this third distinctive characteristic of Yogeshji’s poetic/lyrical style – ability, to express complex emotional issues simply yet effectively, further.  In my opinion, the one song  that personifies this trait is “Kai baar yuun bhi dekha hai…” from Rajnigandha.  This background song is used to depict the mental state of the heroine, Deepa, who is disconcerted by her simultaneous attraction to two men in her life.  If one pays a little attention to the lyrics, the lady’s dilemma becomes very apparent.  In the opening lines themselves, the lyricist clearly indicates that there is a contention between the heart and mind of the character by use of words “Ye jo man ki seemarekha hai, man todne lagtaa hai” and then “anjaanii aas” and “anjaani pyaas” of the heart that the mind seemingly fails to understand.  The head is perhaps trying to evaluate the heart’s desires within the bounds of socially acceptable norms and finding them at odds with what makes sense.  In the first stanza, the lyricist has cleverly hinted at the impasse using flowers as symbols when he says “Jeevan ki raahon mein jo khile hain phool phool muskuraake, kaun sa phool churaake, rakh loon man mein sajaa ke” while in the second one, he clearly states the whole predicament as “Uljhan ye, jaanoon na suljhaaoon kaise, kuchh samajh na paaoon, kisko meet  banaaoon, kiskii preet bhulaaoon”.  This single song actually zeroes in on the core issue of the movie with such precision.  And that, to me, is the irrefutable evidence of this lyricist’s complete command over his craft. 

Other than sentimental songs, Yogeshji also has some immortal creations in Philosophical category.  The one song that really stands out in this category is “Zindagi kaisi hai paheli hai…” from the movie “Anand”.  This song brings to fore the fleeting nature of life, its ever changing character and uncertainty after death.  The words chosen here are “Zindagi… kaisii hai paheli haaye, kabhi to hansaaye, kabhi ye rulaaye…”, “ek din sapnon ka raahii, chalaa jaaye sapnon se aage kahaan…”.  And the complete last stanza is extremely thought provoking -  “Jinhonen sajaaye yahaan mele, such-dukh sang sang jhele, vahii chunkar khaamoshi, yuun chale jaayen akele kahaan”.  It is rare for me to listen to these words dry-eyed -  what bigger accolade can be there for the lyricist than this?   Yogeshji told that this was a song that was literally given to him to write due to extreme pressure exerted on Hrishi Da by Lachhmanji.  Salil da by mistake asked Yogeshji to write a song for Annadaata on a tune that was already used in Anand.  When  the situation became clear, Lachhmanji insisted that Yogeshji be given a second song in Anand instead.  Initial plan was to have this song play during opening credits but Rajesh Khanna liked it so much that he insisted that it be picturized on him.  And as luck would have it, a song that was not even supposed to be written became one of the key songs that are considered prime representation of this lyricist’s repertoire.

These distinctive traits of Yogeshji’s style are evident in many other songs including “Rajnigandha phool tumhaare…”, “Aaye tum yaad mujhe…”, “Badi sooni sooni hai…”, “Koi roko na deewane ko…”, “Guzar jaaye din…”, “Kabhi kuchh pal jeevan ke…”, “Hum aur tum the saathi…”, “Nis din, nis din…”, “Nain hamaare, saanjh sakhaare…”, “Kahaan tak ye man ko andhere challenge…”, “Ye jab se hui hai jiya ki chori…”, etc.

Over the last few days, re-listening to all the familiar songs of Yogeshji while paying close attention, revealed some interesting trivia.  Its very clear that basically Yogeshji forte is poetry addressing human emotions especially love -  that is where most of his songs are focused.  He also seems to be fascinated by dreams possibly because of the well accepted correlation between dreams/daydreams and the state of being in love.  Whatever the reason, words like “Sapne”, “swapn” and “khwaab” find a mention in many a songs penned by him.  Lets look at a few other than “Kahin door jab din dhal jaaye…”, “Zindagii kaisi hai paheli haaye…”,  “Na jaane kyun hota hai…” references in which we have already discussed.  We find a “dream” reference as “Jis pal nainon mein sapna tera aaye” in “Aaye tum yaad mujhe…”,  “Hamaare-tumhaare sapne jo sach hue the, thaamen hain mera haath” in “Hum aur tum the saathi…”, “Khwaab mere ho gaye rangeen” in “Guzar jaaye din…”,  “Umar ke safar mein jise jo yahaan bhaaye, usii ke sapnon mein ye man rang jaaye” in “Koi roko na deewane ko…”,  “Mainen kahaa sapnon se sajo, to vo muskura ke saj gaye” in “Mainen kahaa phoolon se…”, “Tere sang dekhe the jo sapne haseen” in “Man kare yaad vo din…”,  “Mujhmen aise tum samaaye, mere sapne muskuraaye” in “Man chaahe mehndi rachaa loon…”, “Kaise dekhen sapne nayan” in “Rim-jhim gire saawan…”,  “Nain hamaare saanjh sakhaare, dekhen laakhon sapne” in “Nain hamaare…”, “Sapna dekhen mere khoye khoye naina, mitwaa mere, aa tu bhi seekh le sapne dekhnaa” in “Ni sa, ga ma pa ni, sa re ga, aa aa re mitwaa…”, “Lagtaa hai honge nahin sapne ye poore mere” in “Raaton ke saaye ghane…”,  “Har pal meri in aankhon mein, bas rahte hain sapne unke” in “Rajnigandhaa phool tumhaare…” etc.  Dreams find a mention even in his non-film presentations, a case in point is “Chubhane lagtaa hai saanson mein bikhare sapnon ka har darpan” in “Kuchh aise bhi pal hote hain…”.  By the way, he also tends to use “Man” and “Nayan” fairly frequently.  The first 7-8 years of his career saw him using some Urdu words also before he found and settled into his particular style.  The last decade has seen a sharp decline in the quality of lyrics all round and public has generally stopped paying much attention to them.  This decline is somewhat noticeable in Yogeshji’s output as well but sense of decorum is still very visible in his creations.  In all honesty, Yogeshji can’t be called a very versatile lyricist but he is certainly a master of his niche.  In these changing times, his popularity has certainly declined but the songs he penned in seventies still get the appreciation and recognition that they are worthy of.

There are 3-4 films in the pipeline for which Yogeshji is writing the song lyrics.  One of these, “Ye Deewanagi” is almost ready while others are work in progress.
On Family front, Yogeshji is a proud father of two daughters and a son.  All his children are married and he lives with his son and daughter-in-law in Mumbai.  When I first spoke to him, he was excitedly waiting the arrival of a grandchild.  When I spoke to him a few days later, he had become a proud baba of a little grand-daughter.   We  heartily congratulate him and his family and wish their new arrival all the best in life.
Finally, I will only pray for a long and healthy life for Yogeshji and hope that he continues to pen not only film but non-film songs and poems as well.


References:     
  1.            A conversation with Yogeshji conducted in January 2013
  2.                 “Hindi Filmon ke Geetkaar” by Mr. Anil Bhargav



Acknowledgements: 
1.      Mr. Apoorv Moghe – For sharing his painstakingly compiled list of Yogeshji’s Film songs which saved me hours of research
2.      Mr. Arun Mudgal – For putting me in touch with Yogeshji and putting in a word with him -  Big Thank You…
3.      Mr. Aditya Pant – For Reviewing both the original Hindi write-up and its English translation
4.      Mr. Shyam Uttarwar – For providing me the opportunity to write about one of my favorite lyricists