Thursday, August 03, 2006

चाँद गुलज़ार का

चाँद और कवियों का बड़ा ही पुराना रिश्ता है। शायद ही कोई ऐसा कवि या शायर होगा जो चाँद से प्रेरित न हुआ हो। पूर्णिमा का सम्पूर्ण गोलाकार चन्द्र होता ही इतना मोहक है कि भला कौन उससे प्रेरित हुए बिना रह सकता है? यदि हम समय के उस दूसरे छोर पर जायें जहाँ संसार की पहली कविता का सृजन हुआ हो, और फिर वहाँ से कविता के इतिहास का पल्ला पकड़ कर आज तक का सफ़र तय करें, तो निश्चय ही हम पायेंगे कि पीढ़ी दर पीढ़ी कवियों ने चाँद को सुन्दरता का प्रतीक माना है। फलस्वरूप कविता में ‘चाँद’ के उपयोग का दायरा कुछ महदूद सा रह गया है। महबूबा के हुस्न की तुलना से आगे जैसे चाँद का कुछ वजूद ही नहीं।

एक कवि जिन्होंने अपनी कविताओं में चाँद को एक बहुआयामी व्यक्तित्व और अनगिनत संभावनाओं के साथ प्रस्तुत किया है, वो हैं गुलज़ार। गुलज़ार का चाँद एक बहरूपिया है। कभी वो रोटी बन जाता है, तो कभी भीख का कटोरा; कभी भीख में दी गयी कौडी, तो कभी एक फल जो पक कर पेड से टपक जाए। कभी वो कुहनियों के बल चल कर शरारत पे आमादा हो जाता है, तो कभी पुखराजी पीला रंग ले कर सुस्त पड़ जाता है। एक तरफ़ वो अब्र की मैली सी गठरी में छिपा चमकता खन्जर है, तो दूसरी ओर एक चमकती हुई अठन्नी। कभी एक चिकनी डली जो घुली जाती है, तो कभी दामन-ए-शब पर लगा हुआ एक पैबन्द।

मिसाल के लिये:
1
माँ ने इक चाँद सी दुल्हन की दुआएँ दी थीं
आज कि रात जो फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चाँद मुझे

2
रोज़ अकेली आये, रोज़ अकेली जाये
चाँद कटोरा लिये भिखारिन रात

3
हाथ में लेकर बैठा था मैं दिल का ख़ाली कासा
रात भिखारिन चाँद की कौड़ी दे कर चली गयी
और भिखारी कर गयी मुझको, देखा, एक भिखारिन

4
रात के पेड़ पे कल ही देखा था
चाँद बस पक के गिरने वाला था
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना!

5
आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर
तुम उचक कर शरीर होटों से
चूम लेना ये चाँद क माथा
आज की रात देखा न तुमने
कैसे झुक-झुक के कुहनियों के बल
चाँद इतना क़रीब आया है।

गुलज़ार का चाँद जैसे नये नये रूप धरने से थकता ही नहीं। हर बार एक नया चोगा पहने हमारे सामने आ खड़ा होता है। अब दाद बहरूपिये को दें या उसके ‘दर्ज़ी’ को?

इस बहरूपिये से ख़ुद गुलज़ार भी परेशान हैं और उसकी गिरफ़्तरी के लिये समन (summons) भेजना चाहते हैं –

रोज़ आता है ये बहरूपिया इक रूप बदल कर,
रात के वक़्त दिखाता है कलायें अपनी
और लुभा लेता है मासूम से लोगों को अदा से!
पूरा हरजाई है, गलियों से गुज़रता है, कभी छत से
बजाता हुआ सीटी –
रोज़ आता है, जगाता है, बहुत लोगों को शब भर!
आज की रात उफ़क़ से कोई
चाँद निकले तो गिरफ़्तार ही कर लो!!

No comments:

Post a Comment