बरसे घन सारी रात
संग सो जाओ
आओ रे प्रियतम आओ
प्रिय आओ
संग सो जाओ …
नहलाओ साँसों से तन मेरा
शीतल पानी याद आये
सागर नदिया याद आये
शबनम धुला सवेरा
होटों से तपन बुझाओ
प्रियतम आओ
संग सो जाओ …
कुम्हलाया उजियारा मेरे मन में
अँधियारा घिर आया मेरे मन में
क्यों तन सिहरे छाया डोले
क्या तुम आये बाँहे खोले
नींद आई
मधुर समर्पण
अंतिम सिसकी
चुम्बन से चुप कर जाओ
प्रियतम आओ
संग सो जाओ …
प्रथम दृष्टि में इस मुक्त छंद की प्रारंभिक पंक्तियाँ अपने आप में रत्यात्मक प्रतीत होती हैं - श्रृंगार रस से परिपूर्ण. लेकिन यदि आप इस कविता को पूर्ण रूप से समझे और सन्दर्भ के विषय में सोचें तो कुछ और ही दृष्टिगत होता है. और तब आपको शायद ये बात न खले कि इस गीत का भाव शब्दों से विरोधाभास रखता है. यहाँ पर प्रियतम के नाम से किसी और को नहीं, अपितु मृत्यु को सम्बोधित किया जा रहा है. चिरनिद्रा में विलीन होने का उल्लेख किया जा रहा है.
ये गीत कुमार शहानी की फिल्म तरंग से लिया गया है. विख्यात कवि रघुवीर सहाय द्वारा कलमबद्ध ये रौंगटे खड़े कर देना वाला गीत संगीतबद्ध किया है वनराज भाटिया ने और अपनी वाणी प्रदान की है लता मंगेशकर ने. फिल्म में ये गीत तब आता है जब वो महिला किरदार आत्महत्या का विचार कर रही होती है. उस सन्दर्भ में इस गीत का निहितार्थ एक दम सटीक बैठता है.
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