मेरे पहले कविता-संग्रह – ख़्वाहिश-ए-परवाज़ – को प्रकाशित हुए आठ वर्ष हो चले हैं । वहाँ से 'अधूरे हाफ़िज़े' के प्रकाशन तक का यह अंतराल लम्बा रहा, किन्तु मुझे इस बात का संतोष है कि यह समय व्यर्थ नहीं गया । मुझे अहसास था कि मुझे अपने ’इल्म और हुनर तराशने की कोशिश जारी रखनी है और जो ग़लतियाँ ला-’इल्मी या अधूरे ज्ञान की वजह से मेरे पहले संग्रह में हुईं, उन्हें उर्दू शा’इरी की बारीकियाँ समझ कर सुधारने का पूरा प्रयास करना है ।
तू शा’इरी में मशक़्क़त से डर न ऐ ‘नाक़िद’
तराशने को हुनर जज़्ब कर निकात तमाम
लिहाज़ा, इस दौरान जहाँ मैंने उर्दू ’अरूज़ की तमाम किताबें नए सिरे से पढ़ीं , वहीं कई नामवर और उभरते हुए शु’अरा के कलाम से अपनी वाक़फ़ियत बढ़ाते हुए अपना ज्ञानवर्धन किया । इससे न सिर्फ़ मेरे कलाम की ख़ामियाँ उजागर हुईं, बल्कि मेरी भाषा और विचारों को थोड़ा विस्तार भी मिला । यह तो आपको ही फ़ैसला करना है कि इन सब से मेरे कलाम को कुछ फ़ायदा हुआ भी है या नहीं ।
’अरूज़ के गहन अध्ययन से मुझे कई नई बहरों और उनके आहंगों का पता चला । इनमें कई ऐसे थे जिनका प्रयोग उर्दू शा’इरी में या तो हुआ ही नहीं है या इक्का-दुक्का जगह ही नज़र आता है । इसे एक चुनौती समझ मैंने अधिक से अधिक बहरों और आहंगों में ग़ज़लें नज़्म करने की कोशिश करने का निर्णय लिया । यह ज़रूर था कि कई आहंग लयात्मकता की दृष्टि से अन्य के मुक़ाबले थोड़े मुश्किल या कम दिलकश थे । लेकिन मैंने उसे भी एक चुनौती की तरह ही लिया । नतीजा आपके सामने है – इस संग्रह में २४ बहरों के ६५ अलग-अलग आहंगों में ग़ज़लें, नज़्में, क़ित’ए और फ़र्द मौजूद हैं । कुछ एक ग़ज़लें दोहा और रुबाई के आहंगों में भी हैं, हालाँकि इन आहंगों में ’आम तौर पर ग़ज़लें नहीं कही गई हैं ।
अगरचॆ: ’इल्म-ए-सुख़न दस्त-याब है ‘नाक़िद’
रियाज़-ए-फ़न्न-ए-बलाग़त ज़रा है पेचीदा
यूँ तो इस संग्रह में सम्मिलित सभी ग़ज़लों में मैंने ’अरूज़ से सभी नियमों का पालन करने का पूरा प्रयास किया है, किन्तु एकाध ग़ज़ल में क़ाफ़ियों के चुनाव में थोड़ी ढील भी बरती है । जैसे, उर्दू अरूज़ के अनुसार ‘बह्र’ और ‘शह्र’ क़ाफ़िया नहीं हो सकते क्यूँकि इन दोनों में प्रयुक्त ‘ह’ उर्दू वर्णमाला की दृष्टि से अलग हैं । लेकिन इन्हें उच्चारण की (ध्वन्यात्मक) दृष्टि से देखते हुए मैंने इन्हें हम-क़ाफ़िया बाँधा है । इसी तरह ‘इत्तिफ़ाक़न’, ‘फ़ौरन’, ‘क़स्दन’, ‘इत्तिला’अन’, इत्यादि को भी उच्चारण की बुनियाद पर ही हम-क़ाफ़िया बाँधा है, जबकि उर्दू ’अरूज़ इस की इजाज़त नहीं देता क्यूँकि यहाँ मूल शब्द (‘इत्तिफ़ाक़’, ‘फ़ौर’, ‘क़स्द’, ‘इत्तिला’अ’) हम-क़ाफ़िया नहीं हैं ।
जहाँ एक ओर मेरा अध्ययन जारी रहा, वहीं मेरा क़लम भी ख़ाली न बैठा । भले ही शुरू’आत में घिसट-घिसट के चला, लेकिन ज़ंग लगने से बचा रहा । धीरे-धीरे मेरी रचनात्मकता लगभग २०१९ में अपने सबसे उपजाऊ दौर में पहुँची । इसका श्रेय कुछ हद तक तो मेरे अपने इरादों को दिया जा सकता है, लेकिन यह भी ज़रूर है कि यही वक़्त था जब मेरे निकट और दुनिया भर में भी आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक माहौल बदल रहा था, जो मेरे ख़यालों को नई-नई दिशाओं में भेजता रहा ।
फिर आया २०२०! पूरे विश्व में शायद ही कोई होगा जिसका जीवन कोरोना-काल से अछूता रहा हो । सभी का जीवन अस्त-व्यस्त सा हो गया । सारी दुनिया बस ठहर-सी गई । लेकिन मेरे क़लम में जैसे एक नई ऊर्जा का संचार हुआ । एक के बाद एक नई ग़ज़लें उभरने लगीं । इस संग्रह की लगभग दो-तिहाई ग़ज़लें इसी दौर में लिखी गई हैं ।
ऐसा नहीं है कि इन सभी ग़ज़लों के विषय वबा के इस भयावह दौर, उससे जुड़ी त्रासदियों या मेरे व्यक्तिगत संघर्ष से प्रेरित हैं । दर-अस्ल, आपको इस संग्रह में इन विषयों से सीधे जुड़ी हुई पंक्तियाँ मुश्किल से ही मिलेंगी । इस भयानक दौर ने अगर कुछ किया तो जीवन की अनिश्चितता और क्षणभंगुरता को सामने ला कर खड़ा कर दिया, जो अनेक रूपों में शब्दों का जामा ओढ़े कोरे सफ़्हों पर उतरती रही ।
कई ख़्वाबों के टुकड़े सिरहाने पर पड़े हैं
तमन्नाओं के गोया अधूरे हाफ़िज़े हैं
यही हैं मेरे हाफ़िज़े के कुछ अधूरे टुकड़े, जो अब आपके हिस्से आ रहे हैं ।
'अधूरे हाफ़िज़े' यहाँ से ख़रीदी जा सकती है:
आदित्य पन्त ‘नाक़िद’
जून २०२२
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