Friday, June 09, 2006

प्रेरणा

मेरी कविताओं के संदर्भ में लोग अक्सर मेरे समक्ष एक प्रश्न रखते हैं। भला मुझे कविता लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? इस का उत्तर देना मेरे लिये इतना आसान नहीं। सच मानिये तो कोई भी कवि इस प्रश्न का उत्तर आसानी से नहीं दे सकेगा। जहाँ तक मेरी बात है, मेरी कविताओं के प्रेरणा स्रोत इतने विविध और भिन्न हैं कि मेरे लिये उनका व्याख्यान करना सम्भव नहीं। कभी मेरे जीवन के अनुभव कविता का रूप धारण कर कोरे पृष्ठ पर अवतरित हो जाते हैं, तो कभी दूसरों पर गुज़रते हालात छन्दों या शे'रों में परिवर्तित हो जाते है। कभी तो औरों की लिखी कविता से भी मैं प्रेरित हो जाता हूँ।

उदाहरण के लिये ये शे’र पढ़िये –

शहर में तो रुख़सती दहलीज़ तक महदूद है
गाँव में पक्की सड़क तक लोग पहुँचाने गये।


है न एक निहायत उम्दा और बलीग़ शे’र? ये मेरे एक मित्र ने लिखा है। जब ये शे’र मैने पहली बार सुना, मुझ पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि मुझे अपनी तमाम शायरी इस एक शे’र के आगे फीकी लगी। ये दो मिसरे अपने आप में कितना गहरा फ़लसफ़ा समेटे हुए हैं। मैं इतना अधिक प्रभावित हुआ इस शे’र से कि मैने इसी ‘तरह’ (बहर, क़ाफ़िया और रदीफ़ का निरधारण) में एक पूरी ग़ज़ल कहने की ठान ली। वैसे ये इतना आसान नहीं था। दो-तीन शे’र तो मैने तुरन्त लिख लिये, परन्तु सही ‘मतला’ मिलने के कुछ महीने लग गये।

आख़िरकार मेरी ग़ज़ल तैयार है – हालांकि मुझे नहीं लगता कि मेरी पूरी ग़ज़ल इस एक शे’र का मुक़ाबला कर सकती है। फ़ैसला अब आप के हाथ में है–

गरचिह हम वादाशिकन के नाम से जाने गये
बाइस-ए-ग़फ़्लतशियारी उनको समझाने गये

ऐश-ओ-इशरत की तलब उस पर फ़ना होने की चाह
महफ़िल-ए-रक्स-ए-शरर की ओर परवाने गये

ज़ुल्म ख़ुद पर करने का हम को अजब ये शौक़ है
बज़्म-ए-ख़ूबाँ में हम अपने दिल को बहलाने गये

ये हमारी ख़ू थी जो भेजा किये उनको ख़तूत
वो मगर क्यूँ ग़ैर से तहरीर पढ़वाने गये

दोपहर की रौशनी में लगते हैं शफ़्फ़ाफ़ सब
रात जो आयी बदन के दाग़ पहचाने गये

है नहीं उम्मीद कोई उनसे शफ़क़त की हमें
चाक-ए-दिल ख़ून-ए-जिगर दुनिया को दिखलाने गये

क़ैस-ओ-लैला शीरीं और फ़रहाद फिर हम और तुम
दास्तान-ए-इश्क़ में बस जुड़ते अफ़साने गये

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